प्रस्तावना
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भारत में छात्रों को राष्ट्रीय सेवा के कार्य में शामिल करने का विचार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समय का है। केंद्रीय थीम जिसे उन्होंने छात्रों के लिए बार-बार जोर दिया वह यह थी कि उन्हें अपने समक्ष सदैव अपनी सामाजिक जिम्मेदारी रखनी चाहिए छात्रों का प्रथम कर्तव्य उनके अध्ययन की अवधि को केवल बौद्धिक ज्ञान तक ही सीमित न रखकर स्वयं को ऐसे व्यक्तियों की सेवा में समर्पित करना है जिन्होंने राष्ट्र की वस्तुओं और सेवाओं के साथ हमारे देश को आवश्यक चीजें प्रदान की है जो कि समाज के लिए अति आवश्यक है। उन्हें समुदाय के साथ जीवंत संपर्क स्थापित करने की सलाह देते हुए जिनके मस्तिष्क में उनकी संस्थाएं स्थापित थीं, उन्होंने यह सुझाव दिया कि आर्थिक और सामाजिक निशक्तता के स्थान पर शैक्षिक शोध के स्थान पर छात्रों को कुछ सकारात्मक करना चाहिए ताकि ग्रामीण वासियों के जीवन को अधिक ऊँचा और नैतिक स्तर पर उठाया जा सके।
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स्वतंत्रता पश्चात् का युग छात्रों के लिए सामाजिक सेवा आरंभ करने के रूप में देखा जा सकता है जो कि शैक्षिक सुधार और शिक्षित कार्मिकों की गुणवत्ता में सुधार के साधन दोनों के रूप में है। डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक ओर छात्रों और शिक्षकों के बीच स्वस्थ संपर्क विकसित करने और दूसरी ओर कैम्पस और समुदाय के बीच सकारात्मक संपर्क स्थापित करने की दृष्टि से स्वैच्छिक आधार पर शैक्षिक संस्थाओं में राष्ट्रीय सेवा आरंभ करने की सिफारिश की।
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इस विचार पर केंद्रीय सलाहकार बोर्ड (सीएबीई) की जनवरी, 1950 में आयोजित बैठक में पुन: विचार किया गया। इस मामले के विभिन्न पहलुओं की जांच करने के पश्चात् और इस क्षेत्र में अन्य देशों के अनुभव को देखते हुए बोर्ड ने यह सिफारिश की कि छात्रों को स्वयंसेवी आधार पर मैनुअल कार्य हेतु कुछ समय समर्पित करना चाहिए और शिक्षकों को ऐसे कार्यों में उनके साथ जोड़ना चाहिए। भारत सरकार द्वारा 1952 में अपनाई गई मसौदा प्रथम पंचवर्षीय योजना में छात्रों के लिए एक वर्ष हेतु सामाजिक एवं श्रम सेवा की आवश्यकता पर और अधिक जोर दिया गया। इसके परिणामस्वरूप विभिन्न शैक्षिक संस्थाओं द्वारा श्रमिक एवं सामाजिक सेवा, कैम्पस कार्य परियोजनाएं, ग्रामीण अप्रेंटसशिप योजना इत्यादि का संचालन किया गया। 1958 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखे गए अपने पत्र में स्नातक शिक्षा के लिए पूर्व अपेक्षित के रूप में सामाजिक सेवा का विचार आगे बढ़ाया। उन्होंने शिक्षा मंत्री को शैक्षिक संस्थाओं में राष्ट्रीय सेवा आरंभ करने का भी निर्देश दिया।
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1959 में शिक्षा मंत्री के सम्मेलन के समक्ष योजना का एक मसौदा रखा गया। यह सम्मेलन राष्ट्रीय सेवा के लिए एक कार्य योग्य योजना आरंभ करने की तत्काल आवश्यकता के बारे में एक मत था। इस मत को देखते हुए कि शिक्षा जो कि स्कूलों और कॉलेजों में प्रदान की जा रही थी में अपेक्षित कुछ छूट रहा था और इसे ऐसे कार्यक्रमों के साथ अनुपूरक करना आवश्यक था जो देश के सामाजिक और आर्थिक पुर्ननिर्माण के हित तैयार करते है। यह विचार रखा गया कि यदि योजना के उद्देश्य को मूर्त रूप दिया जाना है तो सामाजिक सेवा को जल्दी से जल्दी शिक्षा की प्रक्रिया के साथ समेकित करना आवश्यक होगा। सम्मेलन में यह सुझाव दिया कि प्रस्तावित प्रायोगिक परियोजना के ब्यौरे तैयार करने के लिए एक समिति की नियुक्ति की जाए। इन सिफारिशों के अनुसरण में इस दिशा में सटीक सुझाव देने के लिए 28 अगस्त, 1959 को डॉ. सी.डी. देशमुख की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय सेवा समिति की नियुक्ति की गई। इस समिति ने यह सुझाव दिया कि 9 महीने से लेकर 1 वर्ष तक की राष्ट्रीय सेवा हाई सकूली शिक्षा पूरी करने वाले और कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय में दाखिला लेने के इच्छुक सभी छात्रों के लिए अनिवार्य बना दी जाए। इस योजना में कुछ सेना प्रशिक्षण, सामाजिक सेवा, मैनुअल श्रम और सामान्य शिक्षा भी शामिल किए जाने अपेक्षित थे। समिति की सिफारिशों को इसके कार्यान्वयन में वित्तीय निहतार्थों और कठिनाईयों के कारण स्वीकार नहीं किया जा सका।
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1960 में भारत सरकार की पहलता पर प्रो. के.जी. सैय्यदेन ने विश्व के कई देशों में क्रियान्वित छात्रों द्वारा राष्ट्रीय सेवा का अध्ययन किया और कई सिफारिशों के साथ सरकार को ‘युवाओं के लिए राष्ट्रीय सेवा’ शीर्षक के तहत अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। जैसे कि भारत में छात्रों द्वारा सामाजिक सेवा की व्यवहार्य योजना तैयार करने के लिए क्या किया जाना चाहिए। यह भी सिफारिश की गई कि सामाजिक सेवा कैंपों को बेहतर अंतर-संबंधों के लिए निर्धारित आयु-समूहों के भीतर विद्यार्थियों और साथ ही गैर- विद्यार्थियों के लिए भी खोल देना चाहिए।
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डॉ. डी.एस. कोठारी (1964-66) की अध्यक्षता में शिक्षा आयोग ने यह सिफारिश दी की शिक्षा के सभी स्तरों पर छात्रों को सामाजिक सेवा के किसी रूप से जोड़ा जाना चाहिए। इस पर अप्रैल, 1967 में राज्य शिक्षा मंत्री द्वारा उनके सम्मेलन के दौरान विचार किया गया और उन्होंने यह सिफारिश की कि विश्वविद्यालय सतर पर छात्रों को राष्ट्रीय कैडेट कार्प्स (एनसीसी) जो स्वयंसेवी आधार पर पहले ही अस्तित्व में थी को ज्वाइन करने की अनुमति दी जा सकती है और इसके विकल्प के रूप में राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) नामक एक नया कार्यक्रम प्रदान किया जा सकता है। तथापि, प्रबुद्ध खिलाड़ियों को इन दोनों से छूट देनी चाहिए तथा उन्हें खेलों तथा एथलीटों के विकास की वरीयता की आवश्यकता को देखते हुए राष्ट्रीय खेल संगठन (एनएसओ) नामक एक योजना ज्वाइन करने की अनुमति दी जानी चाहिए।
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सितम्बर, 1969 में कुलपतियों के सम्मेलन में इस सिफारिश का स्वागत किया गया और यह सुझाव दिया गया कि कुलपतियों की एक विशेष समिति का इस मुद्दे पर विस्तार से जांच करने हेतु गठन किया जा सकता है। भारत सरकार की शिक्षा संबंधी राष्ट्रीय नीति के वक्तव्य में यह उल्लेख किया गया कि कार्यानुभव और राष्ट्रीय सेवा को शिक्षा का समेकित भाग होना चाहिए। मई 1969 में शिक्षा मंत्रालय तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा संचालित विश्वविदृयालयों और उच्च शिक्षा संस्थाओं के छात्र प्रतिनिधियों के सम्मेलन में एकमत से यह घोषणा की गई कि राष्ट्रीय सेवा राष्ट्रीय एकता के लिए सशक्त माध्यम हो सकती है। इसका शहरी छात्रों को ग्रामीण जीवन से परिचित कराने के लिए उपयोग किया जा सकता है। राष्ट्र की प्रगति और उत्थान के लिए छात्र समुदाय के योगदान के प्रतीक के रूप में स्थायी मूल्य की परियोजनाएं भी चलाई जा सकती हैं।
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शीघ्र ही इसके ब्यौरे तैयार किए गए और योजना आयेाग ने राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) के लिए चौथी पंचवर्षीय योजना के लिए 5 करोड़ रूपए का बजटीय परिव्यय स्वीकृत किया। यह निर्धारित किया गया कि एनएसएस कार्यक्रम को चुनी गई संस्थाओं और विश्वविद्यालयों में एक प्रायोगिक परियोजना के रूप में आरंभ किया जाना चाहिए।
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24 सितम्बर, 1969 को तत्कालनी शिक्षामंत्री डॉ. वी. के. आर.वी. राव ने सभी राज्यों को शामिल करते हुए 37 विश्वविद्यालयों में एनएसएस कार्यक्रम आरंभ किया और साथ ही राज्यों के मुख्यमंत्रियों को उनके सहयोग और सहायता का अनुरोध किया। यह उपयुक्त था कि कार्यक्रम गांधी शताब्दी वर्ष के दौरान आरंभ किया जाए चूंकि गांधी जी ने भारत के युवाओं को भारत की स्वतंत्रता के आंदोलन में तथा हमारे राष्ट्र के निचले पायदान वाले लोगों के समाजिक उत्थान में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था।
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इस कार्यक्रम का मूलभूत सिद्धांत यह था कि किसे स्वयं छात्रों द्वारा आयोजित किया जाता है और छात्र एवं शिक्षक दोनों सामाजिक सेवा में समेकित भागीदारी के माध्यम से राष्ट्रीय विकास के कार्यों में भागीदारी की भावना प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त विशेषकर छात्र ऐसे कार्यानुभव प्राप्त करते हैं जो उन्हें स्व-रोजगार अथवा उनके विश्विद्यालय करियर के अंत में किसी संगठन में रोजगार के अवसर प्राप्त करने में सहायक हों। आरंभ में प्रतिवर्ष प्रति एनएसएस छात्र 120 रूपए के व्यय के वित्तीय प्रबंध प्रदान किए गए जिन्हें केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच 7:5 के अनुपात में साझा किया जाना था अर्थात् केंद्र सरकार द्वारा 70 रूपए तथा राज्य सरकार द्वारा 50 रूपए प्रति वर्ष प्रति एनएसएस छात्र के लिए व्यय किया जाना अपेक्षित था। 120 रूपए प्रति एनएसएस छात्रप्रति वर्ष की राशि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच 7:5 के अुनपात में साझा की जानी अपेक्षित थी (अर्थात् केंद्र सरकार द्वारा 70 रूपए प्रति छात्र और राज्य सरकार द्वारा 50 रूपए प्रति छात्र) अब, एनएसएस भारत सरकार की एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है और सभी राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में इसकी गतिविधियों तथा कार्यक्रमों के संचालन का केंद्र सरकार द्वारा पूर्णत: वित्तपोषण किया जाता है। अवमूल्यन को ध्यान में रखते हुए विशेष कैम्पिंग और नियमित गतिविधियों के लिए बजट निम्नानुसार है:
- नियमित गतिविधियां: 250 रूपए प्रति स्वयंसेवक प्रति वर्ष
- विशेष कैम्पिंग कार्यक्रम- निरंतर 2 वर्षों के लिए 450 रूपए प्रति स्वयंसेवक
इस योजना का अब देश में सभी राज्य/संघ राज्य क्षेत्रों तथा विश्वविद्यालयों में विस्तार किया गया है इसमें कई राज्यों ने +2 स्तर की परिषदें भी शामिल की गई हैं। छात्र, शिक्षक, अभिभावक, सरकार ने अधिकारी, विश्वविद्यालय और कॉलेजों/स्कूलों तथा सामान्य रूप से लोग अब एनएसएस की आवश्यकता और महत्व को महसूस करते हैं। इसने युवा छात्रों के बीच जीवन की वास्तविकताओं के प्रति जागरूकता, लोगों की समस्याओं की बेहतर समझ पैदा की है। अत: एनएसएस समुदाय की आवश्यकताओं के संगत परिसरों को बनाने का एक सटीक प्रयास है। एनएसएस की इकाईयों द्वारा किए गए उत्कृष्ट कार्यों और उदाहरण और घटनाएं हैं जिन्हें लोगों की प्रशंसा, सम्मान और विश्वास हासिल हुआ है। शीर्षक ‘यूथ एगेन्सट फेमाइन (1973)’, ‘यूथ एगेन्सट डर्ट एंड डिजीज (1974-75)’, ‘यूथ फॉर इको-डवलपमेंट’ और ‘यूथ फॉर रूरल रीकंस्ट्रक्शन’ –‘यूथ फॉर नेशनल डवलपमेंट एंड यूथ फॉर लिटरेसी (1985-93), ‘यूथ फॉर नेशनल इंटीग्रेशनएंड कम्यूनल हार्मेनी (1993-95)’ के अंतर्गत आयोजित विशेष कैम्पिंग कार्यक्रमों से समुदाय और साथ ही छात्रों को लाभ पहुंचा है। विशेष कैम्पिंग के लिए 1995-96 से आगे के वर्षों का विषय वाटर शेड मैनेजमेंट और वाटर लैंड डवलपमेंट पर ध्यान केंद्रित करते हुए यूथ फॉर ससटेनेबल डवलपमेंट है। इन विषयों का चयन राष्ट्रीय वरीयताओं के आधार पर किया जाता है साथ ही 1991-92 से आगे एनएसएस ने ‘‘यूनिवर्सिटीज टॉक एड्स’’ (यूटीए) के संबंध में एक राष्ट्रवाद अभियान आरंभ किया है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय ध्यान और प्रशंसा अर्जित की है।
विश्वविद्यालय और +2 स्तर के छात्रों द्वारा की गई समुदाय सेवा में विभिन्न पहलू शामिल किए गए हैं जैसे कि गहन विकास कार्य के लिए गांवों और शहरी बस्तियों को अपनाना, चिकित्सा- सामाजिक सर्वेक्षण करना, चिकित्सा केंद्रों की स्थापना, जन टीकाकरण कार्यक्रम, स्वच्छता अभियान, समुदाय के कमजोर वर्गों के लिए प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम, रक्तदान, अस्पतालों में रोगियों की सहायता, अनाथालयों और शारीरिक रूप से नि:शक्त व्यक्तियों की सहायता करना इत्यादि। एनएसएस के स्वयंसेवकों ने प्राकृतिक आपदाओं/आकस्मिकताओं जैसे चक्रवात, बाढ़, सूखा, भूकम्प, सुनामी इत्यादि के दौरान पूरे देश में समय-समय पर सराहनीय राहत कार्य किया है। एनएसएस के छात्रों ने सामाजिक बुराईयों को दूर करने और राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत उद्देश्यों जैसे कि राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक सौहार्द और वैज्ञानिक पृवत्ति के विकास को लोकप्रिय बनाने के लिए अभियानों का आयोजित करने में भी उपयोगी कार्य किया है।